Thursday, October 30, 2008

मन और शरीर का सम्बन्ध

पातंजलि सूत्रकार के अनुसार मन में ही राज , तम, सत गुंणों का होना माना है! मन हृदये में रहने वाला दसों इन्द्रियों का मालिक है , कार्य करने में स्वतंत्र है परन्तु बिना इन्देरियों के कार्य करने में असमर्थ है ! इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध कर ही यह गुण दोष विचार करने में समर्थ है ! सत , रज, तम से ही यह विकार को प्राप्त होता हे ! तीनो गुंणों की साम्य अवस्था को प्रकृति तथा विषम अवस्था को विकृति कही जाती है ! जब स्त्री पुरूष संयोग में शुक्र और रज दोनों मिलकर गर्भाशय में जाते हें , उसी समय मन से प्रेरित जीव उसमें प्रविष्ट होता है तभी यह रज वीर्य का संयोग गर्भ कहलाता है नहींतो हजारों बार का सम्भोग निरर्थक जाता है ! सृष्टि की इच्छा करने पर मन ही सृष्टि करता है ! पञ्च महाभूत , बुद्धि , अहंकार , अव्यक्त यह आठ प्रकृतियाँ है ! पञ्च बुद्धि इन्देरिया , पञ्च केर्मिन्देरियाँ , एक मन और पञ्च तन्मात्रा यह सोलह विकार है ! धातुओं की विषमता ही विकार है और साम्यता ही प्रकृति है !

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