Sunday, October 26, 2008

मन

सृष्टि की इच्छा करने पर मन ही सृष्टि करता हे ! जीव् मन का संयोग गर्भ हे ! मन , दस इन्द्रियां , अर्थ , अष्ट धातु की प्रकृति, अव्यक्त , बुद्धि ,अंहकार , पंचतत्व , इन २४ तत्वों का संग्रह शरीर कहलाता हे ! एक अतिवाहिक (सूक्षम) शरीर हैदूसरा अधिभोतिक जो पंचभूतात्मक है और एक अव्यक्त शरीर है ! मरण समय में इसी सूक्षम शरीर को यमराज पकड़ कर ले जाते हें ! यही शरीर जीव् कहलाता हे ! अतिवाहिक शरीर केवल मनुष्यों का ही होता है इतर्योनियों का नही ! मन ज्ञानेन्द्रियों को सञ्चालन करने वाला पृथक इन्द्रिय है ! वासनात्मक सूक्षम शरीर ही कर्मो का वेत्ता है ! दस इन्द्रियां , मन, बुद्धि यह इस के कारण हें ! इन्ही के द्वारा वासना ( भावना) बनती है ! मनुष्य जिस जिस भावका स्मरण कर शरीर छोड़ता है उसी उसी भाव के अनुसार उसी योनी मिलती है ! निर्विकार आत्मक जीव् में भाव ही प्रथम विकार है यही भावना कहलाती है ! जब भावना का नाश हो जायगा तब शरीर ही नही रहेगा ! ये सब भाव बुद्धि में ही रहते हें ! बुद्धि मन की ही एक मात्र अवस्था हे ! सूक्षम जीव् बाल के अग्रभाग के हजारवें हिस्से के बराबर है ! बुद्धि ही चेतना हे ! आचार्य चरक के अनुसार चेतना का स्थान मन इन्द्रियों के सहित देह है ! सुश्रुत भी हृदय को ही चेतना का स्थान मानते हें ! इस प्रकार बुद्धि , मन , अंहकार , एक ही वास्तु हें सिर्फ़ अवस्था मात्र भेद हे ! मन , आत्मा , शरीर , तीनो का योग ही पुरूष हे ! बुद्धि , आत्मा ( मन) एक ही वास्तु हे परन्तु विपरीत देखने से भेदमान दिखाई देती हें ! गुण कर्म सूक्षम शरीर में हें वह मन है अतः मन ही चेतना धातु है ! मन ही जब इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है तब वे अर्थ ग्रहण करती है अतः मन ही प्रधान है और मन ही बुद्धि है !प्रमाण, प्रतिकूल, विकल्प , निद्रा , स्मृति यह पांच गुण बुद्धि के हें ! शोक ,क्रोध लोभ , काम , मोह परलोक के विषय में एविश्वास , इर्ष्या , मान , संशय , हिंसा , गुण में दोष लगाना, निंदा करना ये बारेह मन के दोष है ! यही बुद्धि नाश के हेतु हें ! ध्यान से देखने पर मन एवं बुद्धि के गुंणोंमें साम्यता है अतः बुद्धि ही मन है !











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